अयोध्या प्रकरण पर
प्रयाग उच्चन्यायालय
की विशेष
पीठ द्वारा
30सितम्बर को दिये गयेनिर्णय पर
अपने-अपने
चश्मे के
अनुसार विभिन्न
दल, समाचार
पत्र,पत्रिकाएं
तथा दूरदर्शन
वाहिनियां बोल व लिख रही
हैं।
इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपतिडा. शंकरदयाल शर्माने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगहपर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ?
इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्नसे बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्चन्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्वसर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गयाकि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था।
अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।
इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे।
उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है। इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वहवामपंथी कैसा ?
चूना-सुर्खी काप्रयोग भारत के लाखों भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौवर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए ? जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई देरहे हों ?
इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ? न्यायालय के मोर्चे पर पिटने केबाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।
इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर मेंविश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंगतथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते। क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार,म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारेशरीफ, कश्मीर),टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला,लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समयसंगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर,अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थातकाला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व. पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिकविश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है। अरब देशों में इस्लाम से पहले शैवमत ही प्रचलित था।
इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिवस्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण(बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा। क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्चन्यायालय के निर्णय के बाद छातीपीट रहे मजहबी नेता इस बात कासमर्थन करेंगे ?
साभार - श्री विजय कुमार -संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्@6,नई दिल्ली - 22 और लालमिर्ची
इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपतिडा. शंकरदयाल शर्माने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगहपर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ?
इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्नसे बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्चन्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्वसर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गयाकि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था।
अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।
इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे।
उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है। इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वहवामपंथी कैसा ?
चूना-सुर्खी काप्रयोग भारत के लाखों भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौवर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए ? जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई देरहे हों ?
इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ? न्यायालय के मोर्चे पर पिटने केबाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।
इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर मेंविश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंगतथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते। क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार,म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारेशरीफ, कश्मीर),टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला,लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समयसंगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर,अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थातकाला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व. पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिकविश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है। अरब देशों में इस्लाम से पहले शैवमत ही प्रचलित था।
इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिवस्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण(बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा। क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्चन्यायालय के निर्णय के बाद छातीपीट रहे मजहबी नेता इस बात कासमर्थन करेंगे ?
साभार - श्री विजय कुमार -संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्@6,नई दिल्ली - 22 और लालमिर्ची
No comments:
Post a Comment