कल शाम कुछ
हजरतगंज की हवा
खाने का मूड
हुआ तो उस
तरफ टहलने निकल
गया | जनपथ मार्केट की
तरफ मुड़ा ही
था कि सामने
से एक सुन्दर
युवती आती दीख
पड़ी | ऐसा मत
समझिएगा कि हजरतगंज में
किसी भी सुन्दर
युवती को देख
कर मैं 'अटेंशन'
में आ जाता
हूँ | यहाँ तो
बात कुछ ऐसी
थी कि मैडम
सुन्दर होने के
साथ-साथ कुछ
जानी-पहचानी सी
लगीं | कुछ देर
कुलबुलाने के बाद
सोये हुए जज़्बात दीमाग
पर जमी वक़्त
की परत को
तोड़ कर बाहर
निकले और दिल
से आवाज़ आई
"अरे ये तो
रेखा जी हैं
!!"
रेखा जी एक
ज़माने में हमारी
कोलोनी की धड़कन
हुआ करती थीं
| पसंद तो मुझे
भी थीं मगर
कभी भी उनके
आशिकों की लम्बी
कतार में शामिल
होने कि हिम्मत
नहीं हुई | आज
इतने दिनों बाद
उनको सामने देख
कर मैंने जज्बातों के
स्विमिंग पूल में
जो गोता लगाया
तो फिर वो
तन्द्रा उनकी सुरीली
"हाय" से टूटी
|
"अरे आप
! यहाँ अकेले खड़े
क्या कर रहे
हैं ?"
"बस...बस
ऐसे ही | कुछ
काम से आया
था | अपने एक
दोस्त का इंतज़ार कर
रहा था |" मैंने झूठ
बोला |
"और आप
सुनाइये क्या खरीददारी हो
रही है ?" उनके हाथ
में पकडे हुए
पैकेट की तरफ
देख कर मैंने
पूछा |
"ओह ये
...ये तो बेबी
के लिए फैरेक्स है
|" उन्होंने जवाब दिया
|
"बेबी के
लिए फैरेक्स...!" ये वाक्य
मेरे कानों में
बम कि तरह
फटा | यानी रेखा
जी की न
केवल शादी हो
गयी थी, वरन
बच्चा भी इतना
बड़ा हो गया
था कि फैरेक्स खाने
लगे |
"मुबारक हो
रेखा जी ! भई
ये तो गलत
बात है | शादी
कर ली | बेबी
भी हो गया
और हमें खबर
तक नहीं ?" मैंने शिकायत
करी |
"अरे नहीं...नहीं !!आप
गलत समझ रहे
हैं | बेबी तो
मैं प्यार से
अपने जैसपर को
कहती हूँ |"
मेरी नासमझी पर
तरस खाते हुए
उन्होंने बात आगे
बढ़ाई |
"अभी कुछ
दिन पहले एक
अलसेशियन पप्पी ख़रीदा
है | उसी का
नाम है जैसपर
| बड़ा नाखरेवाला है
| कुछ खाता ही
नहीं था | मेरी
एक दोस्त ने
बताया कि उसे
फैरेक्स खिलाओ | मैंने
ट्राई किया | उसे
फैरेक्स सचमुच बहुत
पसंद आया | अब
तो हालत ये
है कि हर
हफ्ते एक टिन
चट कर जाता
है |" रेखा जी
के लहजे में
वात्सल्य उमड़ आया
|
"आपको पता
है, अलसेशियन बड़ा
समझदार कुत्ता होता
है | मेरा जैसपर
तो बड़ा क्यूट
है..."
रेखा जी ने
वात्सल्य पूर्ण स्वर
में अपने 'बेबी'
की तारीफ़ शुरू
करी | मगर मेरा
दिमाग चक्कर खा
रहा था | एक
सवाल मेरे ज़ेहन
में हथोड़े कि
तरह चोट कर
रहा था | सवाल
था " कुत्ते के
लिए फैरेक्स ...!!!???"
"अच्छा मैं
चलती हूँ | कभी
घर आईये | आपको
बेबी से मिलवाऊंगी |"
"ज..जी..."
रेखा जी चली
गयीं, मगर मेरे
ज़ेहन में एक
ऐसी उथल पुथल
छोड़ कर , जिसे
सम्हालना नामुमकिन हो
गया और मैं
वहीँ फुटपाथ पर
बैठ गया |
आप भले ही
मुझे एक सड़ा
हुआ सोशलिस्ट समझें
मगर बात कुछ
हज़म नहीं हो
रही थी | जिस
मुल्क में हर
साल लाखों बच्चे
भूख और कुपोषण
से मरते हों,
उसमें फैरेक्स जैसा
शिशु आहार कुत्ते
के पिल्लों को
खिलाया जा रहा
है !?
मगर इस इस
मामले में रेखा
जी अकेली तो
नहीं हैं | हमारी
एक और जानकार
मिलीं जो अपने
कुत्ते को काजू-किशमिश खिलाती
हैं | एक ऐसा
भी केस देखा
जहां एक मिसेज़
शर्मा अपने कुत्ते
'लकी' को मेहमानों से
बाकायदा 'लकी शर्मा'
के नाम से
मिलवाती थीं | ऐसे
भी असंख्य मामले
हैं जहां इस
गर्म देश में
अपने प्यारे-दुलारे
कुत्तों को ठंडा
रखने के लिए
उनके 'मां-बाप
' उन्हें एयर कंडीशन
में सुलाते हैं
|
इस तरह के
दृष्टान्तों से मैं
अपने चीखते-चिल्लाते हृदय
को सांत्वना दे
रहा था, कि
कंधे पर किसी
ने हाथ रखा
| ऊपर देखा तो
होमगार्ड था |
"क्या बात
है भाई ? यहाँ
फुटपाथ पर बैठना
मना है |"
मेरा मन तो
हुआ कि उससे
पूछूं कि जनपथ
में फुटपाथ पर
बैठना कब से
मना हो गया
? मगर बिना कुछ
बोले चुप-चाप
उठ गया | बोझिल
कदमों से घर
की तरफ जा
रहा था कि
सामने से एक
चमचमाती 'मर्सडीज़' कार
निकली | अन्दर एक
सुन्दर सी मैडम
थीं और उनकी
गोद में सफ़ेद,
सुन्दर, रुई के
फाहे सा, उन
के गोले सा...'पामेरियन' था
| कार होर्न बजाती
हुई बगल से
निकल गयी और
मन में एक
हूक सी उठी...."काश..मैं
मैडम का कुत्ता
होता |"
कल डिस्कवरी चैनल
पर एक कार्यक्रम देख
रहा था | उसमें
एक सुन्दर सी
मैडम के हाथों
में एक सुन्दर
सा कुत्ता था
जो बड़े प्यार
से उनके मुंह
पर जीभ फेर
रहा था | मैडम
के चेहरे पर
जो प्रसन्नता के
भाव थे उनको
देखकर बरबस मन में
यह विचार आया
...
"लब का
बोसा कुत्ता ले
और हम खड़े
देखा करें, क्या
हमारी कदर कुत्ते
के बराबर भी
नहीं ....!!??"
बचपन से ही एक शब्द सुनता आया हूँ 'समाजवाद' | जिसे देखो वो ही ऐसे समाजवाद की बातें करता है जिसमें ना कोई दीन रहेगा ना दुखी | बाल-बुद्धि को पतंगबाजी में ज्यादा आनंद आता था इसलिए बड़े होने तक यह समझ में नहीं आया कि यह 'समाजवाद' ऐसी कौन सी दवा है जिससे देश के सारे मर्जों का एक साथ इलाज हो सकता है ? किताबों से संपर्क किया तो पता चला कि भारत के संविधान से ले कर कार्ल मार्क्स की किताबों और रूस से ले कर चीन तक समाजवाद चारों तरफ बिखरा पडा है | किताबों ने समझाया कि समाजवादी व्यवस्था में संसाधनों को इस प्रकार बांटा जाता है कि राष्ट्र में और समाज में सबको सब प्रकार के संसाधन उपलब्ध हो सकें | विचार सचमुच क्रांतिकारी लगे | 'सबको सबकुछ' | यानी ना कोई गरीब और ना कोई अमीर | ना कोई 'हैव' और ना कोई 'हैव नॉट' | जब 'समाजवाद' का अर्थ समझ में आया तो 'पूँजीवाद' का अर्थ स्वतः ही साफ़ हो गया | यानी 'पूँजीवाद' वह व्यवस्था है जिसमें संसाधनों का केन्द्रीकरण कुछ व्यक्तियों के हाथों में इस प्रकार होता है कि बाकी जनता उससे वंचित रह जाती है | यह बड़ा ही घृणित विचार लगा, भारत के परिप्रेक्ष्य में तो बिलकुल गाली के सामान |
समाजवाद की विचारधारा में मग्न एक दिन घर में बैठा था कि मेरे एक मित्र आ गए | उन्हें बहस करना पसंद है, सो सीधे विषय पर आ गए-"यू नो गौरव, इंडिया हैज़ बिकम ए कैपिटलिस्टिक (पूंजीवादी) कंट्री ?'
सुन कर मुझे झटका सा लगा | लगा जैसे उन्होंने खींच कर मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो | तुरंत चाय कि प्याली छोड़ कर खड़ा हो गया | उन्हेंविदा करने के बाद भी प्रश्न मन में गूंजता रहा | "क्या सचमुच हमअपनी समाजवादी परंपरा और आदर्शों से विमुख हो गए हैं ?" अखबारके पन्ने पलटते हुए अचानक एक शब्द पर नज़र पड़ी और सारे संशयमिट गए | शब्द था 'भ्रष्टाचार' | इस शब्द को पढ़कर इतनी प्रसन्नताहुई के पूछिए मत | मन में विचार आया कि भारत वर्ष में अब भीसमाजवाद कायम है और उसका सबूत है भ्रष्टाचार | सचमुचभ्रष्टाचार हमारे देश में समाजवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है | कोई भीइससे अछूता नहीं है | रिक्शेवाले से ले कर हवाईजहाज वाले तक |पानवाले से ले कर होटल वाले तक | अभिनेता से ले कर नेता तक |सब के सब में यह अमूल्य वैचारिक संसाधन बराबर बनता हुआ है |
भ्रष्टाचार ने सचमुच हमारे देश में एक समाजवादी व्यवस्था किस्थापना करी है | वह व्यवस्था है, अर्थव्यवस्था के अन्दर अर्थव्यवस्था| यानी सिस्टम के अन्दर सिस्टम | देश के कुछ मुट्ठी भर पूंजीवादी इसअर्थव्यवस्था को 'काली अर्थव्यवस्था' का नाम देते हैं | परन्तु यह तोसिर्फ उनकी ओछी मानसिकता का प्रतीक है | वास्तव में जिसे वह'काली अर्थव्यवस्था' कहते हैं वाही 'असली' अर्थव्यवस्था है | सिस्टमहै | इस व्यवस्था में सब मिल बाँट कर खाते हैं | इसमें छोटे-बड़े,काले-गोरे, हिन्दू-मुसलमान...किसी का कोई भेद नहीं |मालिक-मुलाजिम सब बराबर हैं | सब एक दूसरे की पूँजी बढ़ाने मेंलगे रहते हैं | सच तो यह है कि भ्रष्टाचार पर आधारित व्यवस्था'इमानदार' पूंजीवादियों से उनकी कमाई को खींचकर सब मेंबराबर-बराबर बाँट देती है | इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार के समाजवाद केऔर भी कई फायदे हैं | इसमें जो कुछ है व्यक्ति का है, देश का कुछभी नहीं | ना कोई टैक्स , ना कोई हिसाब-किताब | जोई कमाओ वोशान से खर्च करो | यही व्यवस्था देश का चंहु-ओर विकास कर रही है |पनपती मॉल संस्कृति, चमचमाती गाड़ियां, लज़ीज़ भोजन औरसुंदरियों वाले पांच-सात सितारा होटल, सब भ्रष्टाचार के समाजवादकी ही देन हैं |
कुछ अल्पबुद्धि लोग भ्रष्टाचार के समाजवाद को 'बेईमानी' कि संज्ञादेते हैं | वास्तव में ये उनके मन कि डाह है | भ्रष्टाचार असल में'बेईमानी ' नहीं 'बुद्धिमानी' का द्योतक है | पुराने सड़े-गले सिस्टम केसाथ तो सब चल लेते हैं | मगर पुरानी रूढ़ियों को तोड़ कर नयीव्यवस्था का निर्माण करने के लिए अपार बुद्धि और कौशल किआवश्यकता पड़ती है | भ्रष्टाचार का समाजवादी ना केवल बुद्धिमानहोता है, वरन साहसी और ‘जुगाडशील’ भी होता है | दरअसलभ्रष्टाचार से दिमाग को पैनापन मिलता है | इससे 'लैटरल थिंकिंग'यानी समानांतर सोच कि वह बेजोड़ काबलियत विकसित होती हैजिसके गुण देश के आई.आई.एम्. प्रायः गाया करते हैं | ‘लैटरल थिंकिंग' यानी आप छत से कुछ इस तरह से अंडा गिराएँ कि वह गिर भी जाए और फूटे भी नहीं | सत्य तो ये है कि 'जुगाड़' नामक कला, जिसपर सारा हिन्दुस्तान नाज़ करता है, इसी भ्रष्टाचार की देन है | जो काम कोई नहीं करवा सकता उसे जुगाड़ त्वरित गति से संपन्न करवाता है | भ्रष्टाचारी काम अटकाना नहीं जानता, वह काम करवाना जानता है | भ्रष्टाचारी सीधे लक्ष्य तक पहुंचता है | रास्ते की परेशानियों की वह चिंता नहीं करता | इसी सोच का परिणाम है उसकी समृद्धि और खुशहाली | देखा जाए तो आज जिस अर्थव्यवस्था पर हम सब नाज़ कर रहे हैं , उसके आधार में 'ईमानदारी का पूँजीवाद' नहीं अपितु 'भ्रष्टाचार का समाजवाद' है | यह दुःख कि बात है इस महान व्यवस्था को कुछ डाह रखने वाले अकर्मण्य लोग बुरा बताते हैं | ऐसे पूंजीवादियों ने तो भ्रष्टाचार के समाजवाद के विरोध में आन्दोलनकारी संस्थाएं तक खड़ी करी हैं | इसके बावजूद यह सर्वत्र व्याप्त है | इसी ने 'इंस्टैंट जस्टिस' कि परिकल्पना को साकार किया है | इसलिए अब समय आ गया है कि हम 'इमानदारी के पूँजीवाद' को छोड़ कर 'भ्रष्टाचार के समाजवाद' की विचारधारा कि ओर पूरी तरह से अग्रसर हों | स्कूलों और कालेजों में इसे एक विषय की तरह पढ़ाया जाए | होनहार युवाओं को इस विषय में पी.एच.दी और डी.लिट जैसी उपाधियाँ दी जाएँ | जब कोई व्यक्ति 'डॉक्टर ऑफ़ हिस्ट्री' हो सकता है तो 'डॉक्टर ऑफ़ भ्रष्टाचार' क्यों नहीं ? मेरी मांग तो यहाँ तक है कि अब 'भ्रष्टाचार' को हिंदी में 'कार्य सुविधाकरण' और अंग्रेजी में 'करप्शन' की जगह 'फसिलीटेशन' कहा जाना चाहिए |
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