Friday, January 11, 2013


आतंकवादी की गोली से वह जख्मी नहीं होते तो आज भी सीमा पर किसी मोर्चे पर डटे होते। मोर्चे पर तो यह आज भी हैं, दिल्ली में सेना मुख्यालय में बैठकर आतंकवाद के खिलाफ रणनीति तैयार करने के। भारतीय सेना में मेजर जनरल एस के राजदान पहले उदाहरण हैं, जो व्हील चेयर पर चलने के बावजूद इस पद तक पहुंचे हैं। उनकी कहानी उनकी जुबां में-

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अक्टूबर 1994 को मेरा 40 जन्म दिन था। कश्मीर के काजीगुंड में एक दुकान पर चाय पी रहे थे। प्राइमरी हैल्थ सेंटर का कम्पाउंडर आया और बोला- आतंकवादी 14 बच्चियों और महिलाओं को अगवा कर ले गए हैं। उनमें मेरी बेटी भी है। सीनियर से अनुमति लेकर हम शाम चार बजे अपने यूनिट से निकल पड़े। तीन मंजिला मकान में आतंकी छिपे थे।

रात 9.30 बजे वहां पहुंचे। देसी घी की खुशबू रही थी। हाथ डालकर घर की कुंडी खोली। किचन में एक औरत ऑमलेट बना रही थी। उसे लगा, मैं भी आतंकी हूं। धीरे से बताया कि मैं सैनिक हूं।

तुम्हें बचाने आया हूं। जल्दी-जल्दी महिलाओं को बाहर निकलवाने लगा। आतंकवादियों को पता चल गया। गोलियां चलना शुरू हो गई। पहली गोली चली तो ठीक वह वक्त था जब मैं पैदा हुआ था। मैंने घर में जल रहा लैंप बुझा दिया। अंदर घुस गया, तीन आतंकी सामने थे, उन्हें मार गिराया। लेकिन एक शायद जिंदा बच गया, जैसे ही उसके पास से ऊपर जाने लगा उसने गोलियां चला दीं।

गोलियां रीढ़ की हड्डी तक तोड़ गईं। दूसरे दिन तक वहीं पड़ा रहा। हमने कुल 9 आतंकी मार गिराए थे। कश्मीर, दिल्ली और फिर पुणो में इलाज चला। चार ऑपरेशन हुए।

सालभर अस्पताल में काटा। दर्द तो आज तक नहीं गया लेकिन शारीरिक अक्षमता को कभी रुकावट नहीं बनने दिया। निराशा से दूर रहने के लिए मैंने वॉटर रेजिस्टेंट स्ट्रेटेजी (पानी की तरह बिना रुके आगे बढ़ते जाना) को मूलमंत्र बना लिया।।

स्कूल के दिनों में मथुरा गोल्फ ग्राउंड के पास एक कब्रिस्तान में बैठकर पढ़ाई करता था मैं। वहां एक मेजर जनरल की संगमरमर की कब्र थी। बचपन से उसे देखकर सेना के प्रति अजीब सा लगाव पैदा हुआ था।

कॉलेज में दोस्त के साथ सेना ज्वाइन करने को लेकर बहस हुई। दोस्त बोला ब्राह्मण हो, जाकर प्रोफेसर बनों। सैनिक बनना जाटों का काम है। यही बहस सेना में ले आई।
आज 11वां कारगिल विजय दिवस है। इस मौके पर शहीद कैप्टन अमित भारद्वाज की मां सुशीला देवी ने शेयर की बेटे की कुछ यादें।

जयपुर। मैं स्कूल से लौटकर घर आती, तो अमित दौड़कर मेरी अंगुलियों को अपने नन्हे हाथों से पकड़कर कभी दौड़ने लगता और कभी धीरे-धीरे चलता। उसके इस नटखटपन से मन में एक विश्वास सा पैदा होता कि कभी इन नन्हे हाथों की अंगुलियां बुढ़ापे में मेरा सहारा बनेंगी। उसकी उम्र और कद के साथ-साथ मेरे सपने भी बड़े हो रहे थे। तभी तो उसकी शादी के सपने भी देख डाले मैंने।

एक दिन आकर उसने कहा कि मां मैंने आर्मी में एप्लाई किया है, मुझे इंटरव्यू के लिए जाना है। उसी वक्त मेरे मन में आया कि अमित के सपने मेरे सपनों से बिल्कुल अलग हैं। मैं जिस लाल के हाथों में सरकारी अफसर की तरह हाथ में कलम या डॉक्टर की तरह कंधों पर स्टेथेस्कोप देखना चाहती थी, उसने अपने कंधों पर देश की रक्षा का जिम्मा लेने की ठान ली थी।

एक दिन उसके पापा के पास उसका फोन आया कि उसे आर्मी के लिए चुन लिया गया है। उधर, कुछ समय बाद खबर मिली की बॉर्डर पर लड़ाई छिड़ गई है और अमित को जाना होगा। मन कुछ समझ नहीं पाया मगर बात देश की थी, मैंने उससे कहा, अमित बेटा अब तुम्हारी असली परीक्षा शुरू हो गई है। आर्मी की ओर से 4 जून को हमारे पास एक मैसेज आया, कैप्टन अमित भारद्वाज इज मिसिंग। ये बात सुनकर मन में बुरे विचार आने लगे मगर उम्मीद का भी साथ था। फिर अचानक एक दिन वो मेरे सामने अपनी जिम्मेदारियां और सपने पूरे करके तिरंगा ओढ़े सो रहा था।

शहीद अमित भारद्वाज को कायस्थ इंडिया के समस्त सदस्यों का सादर नमन
आंसुओं से लबालब आंखें। धुंधलाती नजरें कभी अर्चित की फोटो पर तो कभी शून्य में टिक जाती। दिल से उठी हूक चेहरे पर दर्द की बनती बिगड़ती रेखाओं में तब्दील होती। पीड़ा के ज्वार को जज्ब करने की नाकाम कोशिश, जबड़ों पर सख्ती की शक्ल में उभर आती। यह कुछ ऐसा दर्द भरा दृश्य था, जिसे मेवाड़ वासियों ने हाल फिलहाल देखा, महसूस किया था।

मेवाड़, कारगिल में शहीद हुए मांओं के जज्बे का साक्षी भी नहीं बना था। मगर, ये कैसा संयोग था, मंगलवार को कारगिल दिवस की बरसी है और उससे एक दिन पूर्व टाउन हाल में ठीक वैसा ही दृश्य साकार हो रहा था, जैसे कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए शूरमाओं की माएं अपने कलेजे के टुकड़े को अंतिम सलामी देती और हर भारतवासी उस मां के जज्बे को सलाम करता। उस जांबाज के जज्बे को सलाम करता जो देश की खातिर मर मिटा।

वक्ताओं के मुख से निकले अर्चित की जिंदगी के फंसाने फिजाओं में तैरे तो मां- तड़प उठी। कैसे जल्दी लौटने का वादा करके अर्चित गया था, आई तो उसके कभी लौटने की खबर। जैसे मन में हूक सी उठी और आंसुओं की बरसात हो चली। बरसती आंखों पर काबू करते हुए ठीक पीछे बैठी अर्चित की बहन दिव्यानी ने मां को संभालने की असफल कोशिश की मगर सफल बगल में बैठी दादी हुईं।

बुजुर्ग मगर दृढ़। पोते के इस तरह जाने का गम, मगर शहादत पर नाज। माहौल पूरी तरह से गमगीन हो चुका था। लोग उठ खड़े हुए थे, मौका पुष्पांजलि देने का था। किसी ने अर्चित की मां की अंजुली फूलों से भर दी, उनके चेहरे पर एक चमक सी उठी, हथेलियों के बीच बेटे के नर्म गालों का अहसास हुआ, पर पलक झपकते ही असलियत के अहसास ने चेहरे की वह चमक काफूर कर दी। चेहरे पर सख्ती छा गई, वे बढ़ चली। अंजुली के फूल फोटो के सामने बिखेर दिए। अर्चित की आंखों से आंखें मिली, एक शहीद की मां होने का गौरव मुख मंडल पर छा गया।

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले। वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशां होगा।

अन्ना टीम के आग्रह पर कायस्थ इंडिया ग्रुप के समस्त सदस्यों से निवेदन हैं की १६ अगस्त से एक सप्ताह की छुट्टी लीजिए और कमर कसकर तेयार हो जाइए एक निर्णायक आन्दोलन के लिए. १६ अगस्त की सुबह तिरंगा लहराते हुए अपने अपने घर से निकालिए.क्यों की हम कायस्थों के पास कोन से जमीन है जो हमें अधिग्रहण का डर हो ,

टीम कायस्थ इंडिया ग्रुप
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अन्ना ने सरकारी लोकपाल बिल को लोकपाल के नाम पर जनता को धोखा बताया है। अपनी वेबसाइट पर टीम अन्ना ने सरकारी लोकपाल बिल की यह कमियां जारी की हैं।
रिश्वतखोरी से दुखी आम आदमी की शिकायतें लोकपाल नहीं सुनेगा।

निचले स्तर के अधिकारियों कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की जन लोकपाल के दायरे में नहीं आएगी।

नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा।

राज्य सरकारों का भ्रष्टाचार इसके दायरे में नहीं आएगा।

प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों का भ्रष्टाचार इसके दायरे में नहीं आएगा, यानि -जी, कैश फॉर वोट, कामनवेल्थ, आदर्श, येदुरप्पा, जैसे घोटाले इससे एकदम बाहर रखे गए हैं।

साल से पुराना कोई भी मामला इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा... अर्थात बोफोर्स, चारा घोटाला जैसा कोई भी घोटाला इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर दिया गया है।

लोकपाल के सदस्यों का चयन प्रधानमंत्री, एक मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत एक बुद्धिजीवी, एक ज्यूरिस्ट, के हाथ में होगा क्योंकि इसके चयन के लिए जो समिति बनेगी उसमें एक बाकी के एक दो लोगो और होंगे, और उनकी कौन सुनेगा?
लोकपाल के सदस्यों को ही सारा काम करना होगा यानि सारा का सारा काम सदस्य करेंगे, अफसरों के पास निर्णय लेने के अधिकार नहीं होंगे, इससे सारा का सारा काम दो-तीन महीने में ही ठप हो जाएगा।
ज़ाहिर है कि नेता एक अच्छा लोकपाल बिल नहीं ला सकते. क्योंकि अगर एक सख्त लोकपाल कानून बना तो देश के आधे से अधिक नेता दो साल में जेल चले जायेंगे और बाकी की भी दुकानदारियाँ बंद हो जाएंगी। इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि हम यानी देश के आम लोग इस कानून को बनवाने की पहल करें.
 


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