हुतात्मा महाशय राजपाल
की बलिदान-गाथा
एवं रंगीला रसूल
सन १९२३ में
मुसलमानों की ओर
से दो पुस्तकें ” १९
वीं सदी का
महर्षि “और “कृष्ण,तेरी गीता
जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई
थी. पहली पुस्तक
में आर्यसमाज का
संस्थापक स्वामी दयानंद
का सत्यार्थ प्रकाश
के १४ सम्मुलास में
कुरान की समीक्षा से
खीज कर उनके
विरुद्ध आपतिजनक एवं
घिनोना चित्रण प्रकाशित किया
था जबकि दूसरी
पुस्तक में श्री
कृष्ण जी महाराज
के पवित्र चरित्र
पर कीचड़ उछाला
गया था. उस
दौर में विधर्मियों की
ऐसी शरारतें चलती
ही रहती थी
पर धर्म प्रेमी
सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही
के तरीके से
करते थे. महाशय
राजपाल ने स्वामी
दयानंद और श्री
कृष्ण जी महाराज
के अपमान का
प्रति उत्तर १९२४
में रंगीला रसूल
के नाम से
पुस्तक छाप कर
दिया जिसमे मुहम्मद साहिब
की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली
में प्रस्तुत की
गयी थी. यह
पुस्तक उर्दू में
थी और इसमें
सभी घटनाएँ इतिहास
सम्मत और प्रमाणिक थी.
पुस्तक में लेखक
के नाम के
स्थान पर “दूध
का दूध और
पानी का पानी
छपा था”. वास्तव
में इस पुस्तक
के लेखक पंडित
चमूपति जी थे
जो की आर्यसमाज के
श्रेष्ठ विद्वान् थे.
वे महाशय राजपाल
के अभिन्न मित्र
थे. मुसलमानों के
ओर से संभावित प्रतिक्रिया के
कारण चमूपति जी
इस पुस्तक में
अपना नाम नहीं
देना चाहते थे
इसलिए उन्होंने महाशय
राजपाल से वचन
ले लिया की
चाहे कुछ भी
हो जाये,कितनी
भी विकट स्थिति
क्यूँ न आ
जाये वे किसी
को भी पुस्तक
के लेखक का
नाम नहीं बतायेगे. महाशय
राजपाल ने अपने
वचन की रक्षा
अपने प्राणों की
बलि देकर की
पर पंडित चमूपति
सरीखे विद्वान् पर
आंच तक न
आने दी.१९२४
में छपी रंगीला
रसूल बिकती रही
पर किसी ने
उसके विरुद्ध शोर
न मचाया फिर
महात्मा गाँधी ने
अपनी मुस्लिम परस्त
निति में इस
पुस्तक के विरुद्ध एक
लेख लिखा. इस
पर कट्टरवादी मुसलमानों ने
महाशय राजपाल के
विरुद्ध आन्दोलन छेड़
दिया. सरकार ने
उनके विरुद्ध १५३ए
धारा के अधीन
अभियोग चला दिया.
अभियोग चार वर्ष
तक चला. राजपाल
जी को छोटे
न्यायालय ने डेढ़
वर्ष का कारावास तथा
१००० रूपये का
दंड सुनाया. इस
फैसले के विरुद्ध अपील
करने पर सजा
एक वर्ष तक
कम कर दी
गयी. इसके बाद
मामला हाई कोर्ट
में गया. कँवर
दिलीप सिंह की
अदालत ने महाशय
राजपाल को दोषमुक्त करार
दे दिया.मुसलमान इस
निर्णय से भड़क
उठे. खुदाबख्स नामक
एक पहलवान मुसलमान ने
महाशय जी पर
हमला कर दिया
जब वे अपनी
दुकान पर बैठे
थे पर संयोग
से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी
महाराज एवं स्वामी
वेदानन्द जी महाराज
वह उपस्थित थे.
उन्होंने घातक को
ऐसा कसकर दबोचा
की वह छुट
न सका. उसे
पकड़ कर पुलिस
के हवाले कर
दिया गया, उसे
सात साल की
सजा हुई. रविवार
८ अक्टूबर १९२७
को स्वामी सत्यानन्द जी
महाराज को महाशय
राजपाल समझ कर
अब्दुल अज़ीज़ नमक
एक मतान्ध मुसलमान ने
एक हाथ में
चाकू ,एक हाथ
में उस्तरा लेकर
हमला कर दिया.
स्वामी जी घायल
कर वह भागना
ही चाह रहा
था की पड़ोस
के दूकानदार महाशय
नानकचंद जी कपूर
ने उसे पकड़ने
का प्रयास किया.इस प्रयास
में वे भी
घायल हो गए.
तो उनके छोटे
भाई लाला चूनीलाल जी
जी उसकी ओर
लपके.उन्हें भी
घायल करते हुए
हत्यारा भाग निकला
पर उसे चौक
अनारकली पर पकड़
लिया गया. उसे
चोदह वर्ष की
सजा हुई ओर
तदन्तर तीन वर्ष
के लिए शांति
की गारंटी का
दंड सुनाया गया.स्वामी सत्यानन्द जी
के घाव ठीक
होने में करीब
डेढ़ महीना लगा.६ अप्रैल
१९२९ को महाशय
अपनी दुकान पर
आराम कर रहे
थे. तभी इल्मदीन नामक
एक मतान्ध मुसलमान ने
महाशय जी की
छाती में छुरा
घोप दिया जिससे
महाशय जी का
तत्काल प्राणांत हो
गया.हत्यारा अपने
जान बचाने के
लिए भागा ओर
महाशय सीताराम जी
के लकड़ी के
टाल में घुस
गया. महाशय जी
के सपूत विद्यारतन जी
ने उसे कस
कर पकड़ लिया.पुलिस हत्यारे को
पकड़ कर ले
गयी. देखते ही
देखते हजारों लोगो
का ताँता वहाँ
पर लग गया.देवतास्वरूप भाई
परमानन्द ने अपने
सम्पादकीय में लिखा
हैं की “आर्यसमाज के
इतिहास में यह
अपने दंग का
तीसरा बलिदान हैं.
पहले धर्मवीर लेखराम
का बलिदान इसलिए
हुआ की वे
वैदिक धर्म पर
किया जाने वाले
प्रत्येक आक्षेप का
उत्तर देते थे.
उन्होंने कभी भी
किसी मत या
पंथ के खंडन
की कभी पहल
नहीं की. सैदेव
उत्तर- प्रति उत्तर
देते रहे. दूसरा
बड़ा बलिदान स्वामी
श्रद्धानंद जी का
था. उनके बलिदान
का कारण यह
था की उन्होंने भुलावे
में आकर मुसलमान हो
गए भाई बहनों
को, परिवारों को
पुन: हिन्दू धर्म
में सम्मिलित करने
का आन्दोलन चलाया
और इस ढंग
से स्वागत किया
की आर्य जाति
में “शुद्धि” के
लिए एक नया
उत्साह पैदा हो
गया. विधर्मी इसे
न सह सके.
तीसरा बड़ा बलिदान
महाशय राजपाल जी
का हैं.जिनका
बलिदान इसलिए अद्वितीय हैं
की उनका जीवन
लेने के लिए
लगातार तीन आक्रमण
किये गए. पहली
बार २६ सितम्बर १९२७
को एक व्यक्ति खुदाबक्श ने
किया दूसरा आक्रमण
८ अक्टूबर को
उनकी दुकान पर
बैठे हुए स्वामी
सत्यानन्द पर एक
व्यक्ति अब्दुल अज़ीज़
ने किया. ये
दोनों अपराधी अब
कारागार में दंड
भोग रहे हैं.
इसके पश्चात अब
डेढ़ वर्ष बीत
चूका हैं की
एक युवक इल्मदीन, जो
न जाने कब
से महाशय राजपाल
जी के पीछे
पड़ा था, एक
तीखे छुरे से
उनकी हत्या करने
में सफल हुआ
हैं. जिस छोटी
सी पुस्तक लेकर
महाशय राजपाल के
विरुद्ध भावनायों को
भड़काया गया था,
उसे प्रकाशित हुए
अब चार वर्ष
से अधिक समय
बीत चूका हैं.”.महाशय जी
का अंतिम संस्कार उसी
शाम को कर
दिया गया. परन्तु
लाहौर के हिंदुयों ने
यह निर्णय किया
की शव का
संस्कार अगले दिन
किया जाये. पुलिस
के मन में
निराधार भूत का
भय बैठ गया
और डिप्टी कमिश्नर ने
रातों रात धारा
१४४ लगाकर सरकारी
अनुमति के बिना
जुलुस निकालने पर
प्रतिबन्ध लगा दिया.
अगले दिन प्रात:
सात बजे ही
हजारों की संख्या
में लोगो का
ताँता लग गया.
सब शव यात्रा
के जुलुस को
शहर के बीच
से निकल कर
ले जाना चाहते
थे पर कमिश्नर इसकी
अनुमति नहीं दे
रहा था. इससे
भीड़ में रोष
फैल गया. अधिकारी चिढ
गए. अधिकारियों ने
लाठी चार्ज की
आज्ञा दे दी.
पच्चीस व्यक्ति घायल
हो गए . अधिकारियों से
पुन: बातचीत हुई.
पुलिस ने कहाँ
की लोगों को
अपने घरों को
जाने दे दिया
जाये. इतने में
पुलिस ने फिट
से लाठी चार्ज
कर दिया. १५०
के करीब व्यक्ति घायल
हो गए पर
भीड़ तस से
मस न हुई.
शव अस्पताल में
ही रखा रहा.
दुसरे दिन सरकार
एवं आर्यसमाज के
नेताओं के बीच
एक समझोता हुआ
जिसके तहत शव
को मुख्य बाजारों से
धूम धाम से
ले जाया गया.
हिंदुयों ने बड़ी
श्रद्धा से अपने
मकानों से पुष्प
वर्षा करी.
ठीक पौने बारह
बजे हुतात्मा की
नश्वर देह को
महात्मा हंसराज जी
ने अग्नि दी.
महाशय जी के
ज्येष्ठ पुत्र प्राणनाथ जी
तब केवल ११
वर्ष के थे
पर आर्य नेताओं
ने निर्णय लिया
की समस्त आर्य
हिन्दू समाज के
प्रतिनिधि के रूप
में महात्मा हंसराज
मुखाग्नि दे. जब
दाहकर्म हो गया
तो अपार समूह
शांत होकर बैठ
गया. ईश्वर प्रार्थना श्री
स्वामी स्वतंत्रानंद जी
ने करवाई. प्रार्थना की
समाप्ति पर भीड़
में से एकदम
एक देवी उठी.
उनकी गोद में
एक छोटा बालक
था.यह देवी
हुतात्मा राजपाल की
धर्मनिष्ठा साध्वी धर्मपत्नी थी.
उन्होंने कहा की
मुझे अपने पति
के इस प्रकार
मारे जाने का
दुःख अवश्य हैं
पर साथ ही
उनके धर्म की
बलिवेदी पर बलिदान
देने का अभिमान
भी हैं. वे
मारकर अपना नाम
अमर कर गए.
पंजाब के सुप्रसिद्ध पत्रकार व
कवि नानकचंद जी
“नाज़” ने तब
एक कविता महाशय
राजपाल के बलिदान
का यथार्थ चित्रण
में लिखी थी-
फ़ख से सर
उनके ऊँचे आसमान
तक तक हो
गए,हिंदुयों ने
जब अर्थी उठाई
राजपाल.
फूल बरसाए शहीदों
ने तेरी अर्थी
पे खूब, देवताओं ने
तेरी जय जय
बुलाई राजपाल
हो हर इक
हिन्दू को तेरी
ही तरह दुनिया
नसीब जिस तरह
तूने छुरी सिने
पै खाई राजपाल
तेरे कातिल पर
न क्यूँ इस्लाम
भेजे लानतें, जब
मुजम्मत कर रही
हैं इक खुदाई
राजपाल
मैंने क्या देखा
की लाखों राजपाल
उठने लगे दोस्तों ने
लाश तेरी जब
जलाई राजपाल
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