कालाधन की वसूली
होगी ये
नव रात्री
का माँ
का आशीर्वाद
नया सवेरा
लेकर आएगा
हर भारतीय को कसम खानी चाहिए भ्रस्टाचार दारू नसा पती नही करेगे भारतीय
संक्राति को बहाल करेगे भ्र्स्ताचारी को फांसी की सज़ा का प्रावधान करेगे चाहे
कितना बड़े पद पे न किउ नही हो हल्ला बोल अन्नाजी का चलता रहेगा जब तक
भ्रस्टाचार का कचरा साफ नही हो जाता इसके लिए हर देस भक्त को लड़ना होघा आगे
आना होगा
हर भारतीय को कसम खानी चाहिए भ्रस्टाचार दारू नसा पती नही करेगे भारतीय
संक्राति को बहाल करेगे भ्र्स्ताचारी को फांसी की सज़ा का प्रावधान करेगे चाहे
कितना बड़े पद पे न किउ नही हो हल्ला बोल अन्नाजी का चलता रहेगा जब तक
भ्रस्टाचार का कचरा साफ नही हो जाता इसके लिए हर देस भक्त को लड़ना होघा आगे
आना होगा
सावरकर कोई मामूली
क्रांतिकारी नहीं थे। अंडमान-निकोबार
तथा रत्नागिरि
में उन्होंने
27 साल की
जेल और
नजरबंदी भुगती।
क्या दुनिया
का कोई
और क्रांतिकारी
है , जिसने
इतना लंबा
कारावास भुगता
हो ? अगर
25 साल जेल
में रहने
के कारण
मंडेला विश्व-वंद्य हैं
तो सावरकर
को कौन
सा स्थान
मिलना चाहिए
? जब 1910 में सावरकर ने ब्रिटिश
जहाज से
समुद्र में
कूदकर पलायन
किया तो
पहली बार
संसार को
पता चला
कि भारत
अंग्रेजों के चंगुल से छूटने
को छटपटा
रहा है।
अभी गांधी
और नेहरू
स्वाधीनता संग्राम की मुख्यधारा में
शामिल भी
नहीं हुए
थे , जबकि
सावरकर इस
संग्राम के
विश्व विख्यात
योद्धा की
तरह पहचाने
जाने लगे
थे। उन्होंने
स्वाधीनता संग्राम का अन्तरराष्ट्रीयकरण किया। वे विश्व के
पहले व्यक्ति
थे , जिनकी
रिहाई का
मुकदमा हेग
की अंतरराष्ट्रीय
अदालत में
चला। सावरकर
की तरह
कोई क्रांतिकारी
हो , नेता
हो , विचारक
हो और
साथ-साथ
महान साहित्यकार
भी हो-
ऐसा कोई
दूसरा नाम
दिखाई नहीं
देता। जेल
की दीवारों
पर कील
से कविता
की 10 हजार
पंक्तियां लिखने वाला और उन्हें
याद रखने
वाला क्या
दुनिया का
कोई और
साहित्यकार हुआ है ? काले पानी
की सजा
काटते हुए
सावरकर ने
11 साल तक
जो कष्ट
भुगते , उनकी
तुलना अगर
अन्य महान
नेताओं के
कष्टों से
की जाए
, तो सावरकर
पहाडि़यों के बीच हिमालय की
तरह दिखते
हैं। ऐसे
सावरकर के
चित्र पर
आपत्ति करने
का आखिर
कारण क्या
है ?
तीन कारण बताए जाते हैं। एक , उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। दूसरा , वे हिंदू साम्प्रदायिकता के जनक हैं। हिन्दुत्व की धारणा उन्होंने ही दी है। तीसरा , गाँधीजी की हत्या में उनका हाथ था। इसमें शक नहीं कि गाँधीजी की हत्या का जिन ग्यारह लोगों पर आरोप था , उनमें सावरकर को भी फंसाया गया था। बाकायदा मुकदमा चला और जस्टिस खोसा ने उन्हें बरी करते हुए कहा था कि इतने बड़े आदमी को इतना सताया गया। आज जरूरत इस बात की है कि सावरकर को फँसाने वालों का पता लगाया जाए। सावरकर और गाँधी में कोई तुलना नहीं है। गाँधी जैसे लोग सदियों में एकाध ही होते हैं , लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सुभाष , सावरकर , आंबेडकर और भगत सिंह को भुला दिया जाए। लोहिया को भुलाने की भी कम कोशिश नहीं हुई , लेकिन उनके शिष्य रवि राय ने लोकसभाध्यक्ष बनते ही सेंट्रल हॉल में उनका चित्र लगवा दिया। अब भाजपा के प्रधानमंत्री और शिवसेना के लोकसभाध्यक्ष हैं। यदि सावरकर का चित्र अब भी नहीं लगता तो कब लगता ?
जहाँ तक हिन्दुत्व का सवाल है , सावरकर की वह छोटी सी किताब ' हिन्दुत्व ' मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से कई गुना अधिक प्रभावशाली है। उसके तथ्य , तर्क , निष्कर्ष और शैली के आगे बीसवीं सदी के राजनीतिक दिग्गजों की रचनाएँ फीकी दिखाई पड़ती हैं। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के अनेक तर्क अब अप्रासंगिक हो गए हैं , लेकिन हमें उन हालात पर ध्यान देना चाहिए , जिनमें यह पुस्तक लिखी गई। अस्सी साल पहले जब खिलाफत आंदोलन शिखर पर था , भारत पर हुकूमत करने के लिए अफगान बादशाह अमानुल्लाह को मुसलमान होने के कारण आमंत्रित किया जा रहा था। मुस्लिम साम्प्रदायिकता फन फैला रही थी। गाँधी और अन्य नेता सदाशयता के कारण या मजबूरन उसी प्रवाह में बहे चले जा रहे थे , सावरकर ने ' हिन्दुत्व ' लिखकर हिन्दू समाज को झकझोर दिया। यद्यपि हिन्दू बहुमत गाँधी के साथ गया , लेकिन यदि सावरकर नहीं होते तो जरा सोचें कि क्या होता ? यदि भारत का विभाजन नहीं होता तो शायद भारत में दोबारा मुगलिया सल्तनत कायम हो जाती और यदि विभाजन होता तो अब से कई गुना बड़ा पाकिस्तान हमें देना पड़ता। सावरकर के विचारों ने तत्कालीन राजनीति पर गहरा असर डाला। यह कहना हास्यास्पद है कि जिन्ना की तरह सावरकर भी द्विराष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। सावरकर तो अखंड भारत के पक्षधर थे। उन्होंने मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की बात कभी नहीं कही। उलटे उन्होंने अपने 1937 के हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में मुसलमानों को अपनी भाषा , संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए विशेष गारंटियां देने की बात कही। उन्होंने कई बार दोहराया है कि , ' हिन्दू राष्ट्र में किसी के साथ धर्म , वंश या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सबके साथ ' पूर्ण समानता का बर्ताव होगा और किसी एक को दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं करने दिया जाएगा। ' उनका विरोध मुसलमानों से नहीं , ' मुस्लिम ब्लैकमेल ' से था। इसमें शक नहीं कि उनके लेखों और भाषणों से देश में गांधी-विरोधी वातावरण बना और भारत विभाजन की रेखाएं गहरी हुईं , लेकिन गांधी और नेहरू के मरहम को मुसलमानों ने छुआ तक नहीं। विभाजन की खाई तो सावरकर के मैदान में आने से बहुत पहले ही खुद चुकी थी। यदि सावरकर 27 साल जेल में नहीं रहते और बैरिस्टर बनकर 1890 में ही भारत लौटते तो पता नहीं भारत कौन सा हिन्दुत्व स्वीकार करता। गांधी का नरम हिन्दुत्व विफल हुआ और मुस्लिम तुष्टिकरण की कोख से पाकिस्तान जन्मा। लोहिया ने भी अपनी पुस्तक ' भारत विभाजन के दोषी ' में नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है। सावरकर तो पाकिस्तान का बराबर विरोध करते रहे। देखें भाग्य की विडंबना कि आजादी के आखिरी दौर में गांधी और सावरकर का गंतव्य एक ही हो गया तथा जिन्ना और नेहरू के गंतव्य में कोई फर्क नहीं रह गया। मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में भी सावरकर और लोहिया के विचार अनेक बिंदुओं पर एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।
सावरकर जितने सेक्युलर और बुनियादी थे , उतने तो गांधी भी नहीं थे। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि हिन्दुत्व की अवधारणा का जनक कुछ खास परिस्थितियों में गोमांस-भक्षण की वकालत कर सकता है , वेदों की अपौरुषेयता और जन्मना वर्णाश्रम को रद्द कर सकता है और पुरोहिताई पाखंडों पर वज्र-प्रहार कर सकता है ? ऐसा क्रांतिकारी आरएसएस को कैसे स्वीकार हो सकता था ? हिन्दू महासभा और संघ में जैसी खींचतान 40 साल पहले तक चला करती थी , वैसी इन संगठनों की कांग्रेस के साथ भी नहीं चलती थी। सावरकर की प्रतिमा लगाने का अर्थ अगर यह है कि संघ परिवार किसी नए महानायक की तलाश में है , तो इससे प्रतिपक्ष को प्रसन्न ही होना चाहिए , क्योंकि सावरकर के सपनों का भारत जीवन की बुद्धिवादी दृष्टि पर आधारित है , किसी पुराण , कुरान , बाइबल या दास कैपिटल पर नहीं।
जहां तक सावरकर द्वारा माफी मांगने का सवाल है , किसकी बात प्रमाणिक मानें ? अपने सर्वज्ञ नेताओं की या उस अंग्रेज अफसर की , जिससे माफी मांगी जा सकती थी ? 1913 में जब गवर्नर जनरल का प्रतिनिधि रेजिनॉल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो उसके सामने पांच कैदियों ने याचिकाएं पेश कीं। उनमें सावरकर भी थे। वे याचिकाएं थीं , माफीनामे नहीं। इन याचिकाओं में पांचों क्रांतिकारियों ने उन पर हो रहे जुल्मों का उल्लेख किया है और सरकार से सभ्य व्यवहार की आशा की है। अपनी रिहाई के लिए उन्होंने जरूरत से ज्यादा चाशनीदार शब्दावली का प्रयोग किया है। ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्रांति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने और राजभक्ति का आश्वासन दिया , लेकिन जरा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडॉक ने क्या कहा। उसने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह हृदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है। इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक काले पानी की महायातना भोगी। ऐसे सावरकर के चित्र पर भी आपको आपत्ति है! धन्य हैं , हमारे राजनेता।
तीन कारण बताए जाते हैं। एक , उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। दूसरा , वे हिंदू साम्प्रदायिकता के जनक हैं। हिन्दुत्व की धारणा उन्होंने ही दी है। तीसरा , गाँधीजी की हत्या में उनका हाथ था। इसमें शक नहीं कि गाँधीजी की हत्या का जिन ग्यारह लोगों पर आरोप था , उनमें सावरकर को भी फंसाया गया था। बाकायदा मुकदमा चला और जस्टिस खोसा ने उन्हें बरी करते हुए कहा था कि इतने बड़े आदमी को इतना सताया गया। आज जरूरत इस बात की है कि सावरकर को फँसाने वालों का पता लगाया जाए। सावरकर और गाँधी में कोई तुलना नहीं है। गाँधी जैसे लोग सदियों में एकाध ही होते हैं , लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सुभाष , सावरकर , आंबेडकर और भगत सिंह को भुला दिया जाए। लोहिया को भुलाने की भी कम कोशिश नहीं हुई , लेकिन उनके शिष्य रवि राय ने लोकसभाध्यक्ष बनते ही सेंट्रल हॉल में उनका चित्र लगवा दिया। अब भाजपा के प्रधानमंत्री और शिवसेना के लोकसभाध्यक्ष हैं। यदि सावरकर का चित्र अब भी नहीं लगता तो कब लगता ?
जहाँ तक हिन्दुत्व का सवाल है , सावरकर की वह छोटी सी किताब ' हिन्दुत्व ' मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से कई गुना अधिक प्रभावशाली है। उसके तथ्य , तर्क , निष्कर्ष और शैली के आगे बीसवीं सदी के राजनीतिक दिग्गजों की रचनाएँ फीकी दिखाई पड़ती हैं। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के अनेक तर्क अब अप्रासंगिक हो गए हैं , लेकिन हमें उन हालात पर ध्यान देना चाहिए , जिनमें यह पुस्तक लिखी गई। अस्सी साल पहले जब खिलाफत आंदोलन शिखर पर था , भारत पर हुकूमत करने के लिए अफगान बादशाह अमानुल्लाह को मुसलमान होने के कारण आमंत्रित किया जा रहा था। मुस्लिम साम्प्रदायिकता फन फैला रही थी। गाँधी और अन्य नेता सदाशयता के कारण या मजबूरन उसी प्रवाह में बहे चले जा रहे थे , सावरकर ने ' हिन्दुत्व ' लिखकर हिन्दू समाज को झकझोर दिया। यद्यपि हिन्दू बहुमत गाँधी के साथ गया , लेकिन यदि सावरकर नहीं होते तो जरा सोचें कि क्या होता ? यदि भारत का विभाजन नहीं होता तो शायद भारत में दोबारा मुगलिया सल्तनत कायम हो जाती और यदि विभाजन होता तो अब से कई गुना बड़ा पाकिस्तान हमें देना पड़ता। सावरकर के विचारों ने तत्कालीन राजनीति पर गहरा असर डाला। यह कहना हास्यास्पद है कि जिन्ना की तरह सावरकर भी द्विराष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। सावरकर तो अखंड भारत के पक्षधर थे। उन्होंने मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की बात कभी नहीं कही। उलटे उन्होंने अपने 1937 के हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में मुसलमानों को अपनी भाषा , संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए विशेष गारंटियां देने की बात कही। उन्होंने कई बार दोहराया है कि , ' हिन्दू राष्ट्र में किसी के साथ धर्म , वंश या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सबके साथ ' पूर्ण समानता का बर्ताव होगा और किसी एक को दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं करने दिया जाएगा। ' उनका विरोध मुसलमानों से नहीं , ' मुस्लिम ब्लैकमेल ' से था। इसमें शक नहीं कि उनके लेखों और भाषणों से देश में गांधी-विरोधी वातावरण बना और भारत विभाजन की रेखाएं गहरी हुईं , लेकिन गांधी और नेहरू के मरहम को मुसलमानों ने छुआ तक नहीं। विभाजन की खाई तो सावरकर के मैदान में आने से बहुत पहले ही खुद चुकी थी। यदि सावरकर 27 साल जेल में नहीं रहते और बैरिस्टर बनकर 1890 में ही भारत लौटते तो पता नहीं भारत कौन सा हिन्दुत्व स्वीकार करता। गांधी का नरम हिन्दुत्व विफल हुआ और मुस्लिम तुष्टिकरण की कोख से पाकिस्तान जन्मा। लोहिया ने भी अपनी पुस्तक ' भारत विभाजन के दोषी ' में नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है। सावरकर तो पाकिस्तान का बराबर विरोध करते रहे। देखें भाग्य की विडंबना कि आजादी के आखिरी दौर में गांधी और सावरकर का गंतव्य एक ही हो गया तथा जिन्ना और नेहरू के गंतव्य में कोई फर्क नहीं रह गया। मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में भी सावरकर और लोहिया के विचार अनेक बिंदुओं पर एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।
सावरकर जितने सेक्युलर और बुनियादी थे , उतने तो गांधी भी नहीं थे। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि हिन्दुत्व की अवधारणा का जनक कुछ खास परिस्थितियों में गोमांस-भक्षण की वकालत कर सकता है , वेदों की अपौरुषेयता और जन्मना वर्णाश्रम को रद्द कर सकता है और पुरोहिताई पाखंडों पर वज्र-प्रहार कर सकता है ? ऐसा क्रांतिकारी आरएसएस को कैसे स्वीकार हो सकता था ? हिन्दू महासभा और संघ में जैसी खींचतान 40 साल पहले तक चला करती थी , वैसी इन संगठनों की कांग्रेस के साथ भी नहीं चलती थी। सावरकर की प्रतिमा लगाने का अर्थ अगर यह है कि संघ परिवार किसी नए महानायक की तलाश में है , तो इससे प्रतिपक्ष को प्रसन्न ही होना चाहिए , क्योंकि सावरकर के सपनों का भारत जीवन की बुद्धिवादी दृष्टि पर आधारित है , किसी पुराण , कुरान , बाइबल या दास कैपिटल पर नहीं।
जहां तक सावरकर द्वारा माफी मांगने का सवाल है , किसकी बात प्रमाणिक मानें ? अपने सर्वज्ञ नेताओं की या उस अंग्रेज अफसर की , जिससे माफी मांगी जा सकती थी ? 1913 में जब गवर्नर जनरल का प्रतिनिधि रेजिनॉल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो उसके सामने पांच कैदियों ने याचिकाएं पेश कीं। उनमें सावरकर भी थे। वे याचिकाएं थीं , माफीनामे नहीं। इन याचिकाओं में पांचों क्रांतिकारियों ने उन पर हो रहे जुल्मों का उल्लेख किया है और सरकार से सभ्य व्यवहार की आशा की है। अपनी रिहाई के लिए उन्होंने जरूरत से ज्यादा चाशनीदार शब्दावली का प्रयोग किया है। ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्रांति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने और राजभक्ति का आश्वासन दिया , लेकिन जरा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडॉक ने क्या कहा। उसने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह हृदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है। इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक काले पानी की महायातना भोगी। ऐसे सावरकर के चित्र पर भी आपको आपत्ति है! धन्य हैं , हमारे राजनेता।
सावरकर की महानता
आज सरे
देश में
चर्चा है
उनकी गिनती
बड़े क्रांतिकारियों
में
आती है सहीद क्रांति कारियों के त्याग बलिदानों से देश गुलामी की जंजीरों से
मुँक्त हुआ है आज़ादी की नीव में लाखों करोड़ों भारतियों की कुर्वानी नीव की
पत्थर की तरह हैं कोई किसीसे कम नही नेहरु गाधी पटेल तिलक गोखले ऐसे कई थे
जोअपने अपने स्तर पेविरोध कर रहे थे न तो इनसे खतरा अंग्रेजों को था न इनकी
गिनती?शहीदों को सबसे बड़ा दुसमन मानते थे वो?अपने लोगों ने ही गद्दारी कर
शहीदों के लिए कुए खोदे थे सुभाष भगत सिंह सुखदेव राजगुरु हजारों चद्रशेखर
जेसे वीर आज़ादी के परवानों की तरह जलते रहे सालों से लड़ी गई लढाई पहले
मुगलों से फिर अंग्रेजों से किसी का भी योग दान कम नही आकं जा सकता विवेक नन्द
जी ने अपने देश कहिन्दुस्तान का नाम बढ़ाया देश आज़ाद होते ही कई नामची सत्ता
में सामिल होगये जो अंग्रेजों के पिट्टू थे? चमचे थे आज देस का बुरा हल
भ्र्स्ताचारियों ने कर रखा है उन्हें फांसी दी जनि चाहिए सांसद में सावरकर
शहीदों क्रांति कारियों के ही चित्र लगने चाहिए न उन नेताओं के जिनने
भ्रस्टाचार किया देश बर्बाद किया हिन्दू धार्म सब धर्मों का धर्म है /सर्ब हित
सुखाय/हिन्दू धरम में सब धर्मों के लिए पीर /हिन्दू धर्म न उगले वैर न सुखा न
गीला हिन्दू कभी भी आक्रामक नही हिन्दू धरम है सबके लिए लचीला हिन्दू धर्म मर
सर्गाभित घन है हिन्दू धरम है सबके हित के लिए हठीला हिन्दुधर्म में है भाई
चारा सोहाद्रता हिन्दू धर्म में प्रेम स्नेह का नशा हटीला हिन्दू धर्म में
त्याग तपस्या संत शधू प्रवृति आधयात्म घन गंगा का प्रकाश पुंज तेजिला निर्मोही
हिन्दू धर्म्स्ब हितों की सोचे कोई न मिठास है जहरीला हिन्दू सबके धरम के मार्ग
प्रसत करे /सबको संग लेकर चलने का ह्रदय में सपना है म्धुरिला हम राम क्रिसन
के देश में रहते हैं हमारे आदर्श हैं हमे सभी को ध्यान कर इतिहास को अपने
बच्चों में सजोना है क्रांति करी शिदों की कुर्वानी कोयाद रखना है सावरकर को हम
सांसद में नही किउ लगा पढ़े उनका त्याग अपने आप में महत्वपूर्ण है आजादी के
किसी भी नेता का व्हान्क्य स्थान होना चाहिए जो भ्रस्टाचार के जनक रहे सावर कर
ने जो हिम्मत की काबिले तारीफ है में सभी उन योधाओं को सत सत नमन करता हूँ बंदे
मातरम जय हिंद
आती है सहीद क्रांति कारियों के त्याग बलिदानों से देश गुलामी की जंजीरों से
मुँक्त हुआ है आज़ादी की नीव में लाखों करोड़ों भारतियों की कुर्वानी नीव की
पत्थर की तरह हैं कोई किसीसे कम नही नेहरु गाधी पटेल तिलक गोखले ऐसे कई थे
जोअपने अपने स्तर पेविरोध कर रहे थे न तो इनसे खतरा अंग्रेजों को था न इनकी
गिनती?शहीदों को सबसे बड़ा दुसमन मानते थे वो?अपने लोगों ने ही गद्दारी कर
शहीदों के लिए कुए खोदे थे सुभाष भगत सिंह सुखदेव राजगुरु हजारों चद्रशेखर
जेसे वीर आज़ादी के परवानों की तरह जलते रहे सालों से लड़ी गई लढाई पहले
मुगलों से फिर अंग्रेजों से किसी का भी योग दान कम नही आकं जा सकता विवेक नन्द
जी ने अपने देश कहिन्दुस्तान का नाम बढ़ाया देश आज़ाद होते ही कई नामची सत्ता
में सामिल होगये जो अंग्रेजों के पिट्टू थे? चमचे थे आज देस का बुरा हल
भ्र्स्ताचारियों ने कर रखा है उन्हें फांसी दी जनि चाहिए सांसद में सावरकर
शहीदों क्रांति कारियों के ही चित्र लगने चाहिए न उन नेताओं के जिनने
भ्रस्टाचार किया देश बर्बाद किया हिन्दू धार्म सब धर्मों का धर्म है /सर्ब हित
सुखाय/हिन्दू धरम में सब धर्मों के लिए पीर /हिन्दू धर्म न उगले वैर न सुखा न
गीला हिन्दू कभी भी आक्रामक नही हिन्दू धरम है सबके लिए लचीला हिन्दू धर्म मर
सर्गाभित घन है हिन्दू धरम है सबके हित के लिए हठीला हिन्दुधर्म में है भाई
चारा सोहाद्रता हिन्दू धर्म में प्रेम स्नेह का नशा हटीला हिन्दू धर्म में
त्याग तपस्या संत शधू प्रवृति आधयात्म घन गंगा का प्रकाश पुंज तेजिला निर्मोही
हिन्दू धर्म्स्ब हितों की सोचे कोई न मिठास है जहरीला हिन्दू सबके धरम के मार्ग
प्रसत करे /सबको संग लेकर चलने का ह्रदय में सपना है म्धुरिला हम राम क्रिसन
के देश में रहते हैं हमारे आदर्श हैं हमे सभी को ध्यान कर इतिहास को अपने
बच्चों में सजोना है क्रांति करी शिदों की कुर्वानी कोयाद रखना है सावरकर को हम
सांसद में नही किउ लगा पढ़े उनका त्याग अपने आप में महत्वपूर्ण है आजादी के
किसी भी नेता का व्हान्क्य स्थान होना चाहिए जो भ्रस्टाचार के जनक रहे सावर कर
ने जो हिम्मत की काबिले तारीफ है में सभी उन योधाओं को सत सत नमन करता हूँ बंदे
मातरम जय हिंद
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